Wednesday, April 11, 2007

shravya for the knowledgible...

कुछ ढूंढती तनहाई, चुप से ये होंठये कहते नही, पर सबकुछ बता देतें हैं।
इन सीप सी आंखों मे तैरते दो मोती,दिल के बेताब समंदर का पता देतें है।
यूं सूखी बातों मे, मकसद नही बसगहराई लगती है अनंत कोसों की।
मुसकान, ठंडे पत्ते पर, सलौनीसुबह बैठी, लगती हैं, ओसों सी।
चुलबुली तितली हो, हो जाओ मुक्त, रहो अदभुत, तरंगित, तुम भव्या।
स्वतंत्र भरो उडान, बंधनो से दूरदूर बहुत गगन मे, सुंदर, तुम श्रव्या।

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