Thursday, October 25, 2007

ekaant..

वोही मैं और वोही शुन्य,

मन फ़िर भी आक्रांत सा क्यूं है,

देती गुजरती हर घड़ी मातृत्व के कई वादे,

फिर भी बाल-मन अशांत सा क्यूं है,

धुरी पर घूमती इस धरती पर,

जीवन पथ में यह दिशांत सा क्यूं है,

साक्षी असीम सुख के यह अगणित तारे,

कलरव यह चिडियों का असम्भ्रांत सा क्यूं है,

देखेंगे जीवन डगर पर कई मेले और भी,

जाने आज एक एकांत सा क्यूं है!


- आभास

Saturday, October 13, 2007

तुम...

शायद तुम कांटा कोई,
शायद तुम हो कोई कंकड,
शायद तुम तमाचा कोई,
रखा वक्त ने जिसको जडकर,
शायद तुम शोर दुनिया का,
बेहरा करता कानों को,
शायद कम्पन धरती का तुम,
उजाड्ता जीवन स्थानो को.

हाँ यही सब हो तुम.

जाना प्रेम चुभन को तुमसे,
कंकड तुम वो गिरकर,
दिया जीवन जिसने झील स्थिर को,
तमाचा तुम वक्त का,
एहसास कर्तव्य का दिलाता है,
शोर हो तुम उस दुनिया का,
जहाँ गूंज उल्लास बस आता है.

बन जाओ अब शिव तुम मेरे,
अमृत मन्थन कर दो जीवन विष से,
की फिर नवीन का शोर हो,
तपती हो जहाँ धरा,
बन जाओ मेरे ब्रह्मा,
रचा दो एक स्वर्ग नया.

और मांगू फिर तुमसे,
बस एक आखिरी कम्पन,
की उजाड दो इन मकानो को,
देख कर तुम्हें फिर मैं,
शायद फिर,
जीवन का आभास पा सकूं!

~ आभास