क्या तुम और क्या मैं, जैसे एक नदी के धारे,
तुम अपनी मौजो में चन्चल, मेरे अपने अलग किनारे!
आज तुम हर मित्र का कलरव, और मैं हूं शान्त गीत कोई,
आज तुम जैसे नवयुवती का आलिन्गन, मैं इक रूठी प्रीत कोई!
आज तुम कल्पित किसी ज्योतिर्विद की, मैं जीवन स्थैतिक सच्चाई हूं,
आज तुम यञपवित ज्योति सी पावन, मैं तम सागर गहराई हूं।
हे प्रेयसी, हाथो से अपने, तेरी डोली आज सजाता हूं,
"भूल जाओ तुम फिर से मुझको", ये मन्त्र फिर दोहराता हूं।
सात फेरो के कदमो से, तुम कुचल दो उन सपनॊ को,
जिन में विस्मित मन से था देखा, अ-जन्मे कई अपनो को।
क्या तुम प्रेयसी अब भी मुझसे, समीप रहना चाहोगी,
क्या अब भी संग मेरे जीवन की हर रस्मों-रीत निभाओगी।
क्या तुम और क्या मैं अब, जैसे एक नदी के धारे,
तुम अपनी मौजो में चन्चल, मेरे अपने अलग किनारे!
~आभास!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
This has been one of the most beautiful poems i have read...
expressed beautifully...
feelings that can not be captured easily on pages have been given the meaning in few lines...
by the way liked the line, you used as a title in the first snap of the album section on orkut...
keep writing...
god bless
Post a Comment