वोही मैं और वोही शुन्य,
मन फ़िर भी आक्रांत सा क्यूं है,
देती गुजरती हर घड़ी मातृत्व के कई वादे,
फिर भी बाल-मन अशांत सा क्यूं है,
धुरी पर घूमती इस धरती पर,
जीवन पथ में यह दिशांत सा क्यूं है,
साक्षी असीम सुख के यह अगणित तारे,
कलरव यह चिडियों का असम्भ्रांत सा क्यूं है,
देखेंगे जीवन डगर पर कई मेले और भी,
जाने आज एक एकांत सा क्यूं है!
- आभास